द्रौपदी की चीर हरी गई
राधा की रीढ़ मोड़ी गई
सीता की सील तोड़ी गई
अहिल्या की आंख फोड़ी गई
जानकी की ज़बान काटी गई।
हे कृष्ण! कहां हो ? देखो!
कृष्णा कराह रही
कहीं भी पनाह नहीं ?
कौरवों की चाह यही
चीर,सील दाह रही
क्या मथुरा से हाथरस का
बचा कोई राह नहीं ?
मथुरा में ही हो या बन गये द्वारिकाधीश?
कब से कौरवों को दे रहे आशीष ?
द्रौपदी कितना करे सब्र
जब कृष्ण चले गए कब्र।
उसे अब कृष्ण को पुकारना नहीं
कौरवों को ललकारना होगा
दुर्गा, काली, शक्ति बन
संघर्ष की ज्वाला धधकाना होगा।
-- रामेश्वर दुबे ०२अक्टूबर २०२०